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“सनातन का अपमान नहीं सहेंगे”: CJI बी.आर. गवई पर जूता फेंकने की कोशिश, न्यायपालिका की गरिमा पर उठा सवाल

INDC Network : नई दिल्ली, भारत : 6 अक्टूबर 2025 की सुबह सुप्रीम कोर्ट में एक चौंकाने वाला घटनाक्रम हुआ जब एक वकील राकेश किशोर ने न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस (CJI) बी.आर. गवई की ओर जूता फेंकने की कोशिश की। रिपोर्टों के अनुसार यह घटना उस समय हुई जब पीठ (bench) सुनवाई कर रही थी। वकील ने डेस्क के पास जाकर अपना जूता निकाला और CJI की ओर फेंकने का प्रयास किया लेकिन सुरक्षा कर्मियों ने समय रहते हस्तक्षेप कर उन्हें नियंत्रण में ले लिया।

इस दौरान वकील ने नारे लगाए, “सनातन का अपमान नहीं सहेंगे।” घटना के बाद पुलिस ने राकेश किशोर को हिरासत में ले लिया। सुनवाई यथावत जारी रही और CJI गवई ने कहा कि इस तरह की हरकतों से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। बताया जा रहा है कि यह नाराजगी खजुराहो मंदिर में भगवान विष्णु की मूर्ति को लेकर CJI गवई द्वारा की गई टिप्पणी से हुई थी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना की कठोर निंदा की और कहा कि ऐसी हरकतों के लिए देश में कोई जगह नहीं है। न्यायपालिका की गरिमा की संसदनी आवश्यकता पर जोर दिया।

नेता विपक्ष राहुल गाँधी ने लिखा है कि “भारत के मुख्य न्यायाधीश पर हमला हमारी न्यायपालिका की गरिमा और हमारे संविधान की भावना पर हमला है। इस तरह की नफ़रत का हमारे देश में कोई स्थान नहीं है और इसकी निंदा की जानी चाहिए।”

केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने X पर इस घटना को संघ परिवार द्वारा फैलाई जा रही “नफरत” का प्रतिबिंब बताया।

कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा कि “यह धर्मांधता नहीं पागलपन है।” उन्होंने देश की सबसे ऊँची अदालत में इस तरह की हरकत को पूरी तरह से गलत ठहराया।

Supreme Court Bar Association (SCBA) ने वकील द्वारा की गई इस हरकत की कड़ी निंदा की गई। कहा गया कि यह न्यायपालिका की गरिमा पर हमला है और अनुशासनात्मक कार्रवाई होनी चाहिए।

जब सार्वजनिक व्यक्ति, विशेषकर न्यायपालिका के शीर्ष पद पर मौजूद व्यक्ति, धार्मिक या सांस्कृतिक विषयों पर टिप्पणी करते हैं, तो कुछ वर्गों में यही मान्यता होती है कि उनकी टिप्पणी किसी धार्मिक विश्वास या परंपरा का अपमान है। ऐसे मामलों में प्रतिक्रियाएँ तीव्र होती हैं, और कभी-कभी हानिप्रद हो सकती हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आज़ादी है, लेकिन वह सीमा है — वह सीमा कि वह हिंसा या सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित न करे। यहाँ वकील ने नारे लगाते हुए और न्यायाधीश पर हमला करने जैसा प्रयास करते हुए उस सीमा को पार किया।

न्यायपालिका, अदालतें, कोर्ट सिस्टम — ये संवैधानिक संस्थाएँ हैं जिनका उद्देश्य निष्पक्षता, कानून की सर्वोच्चता और न्याय सुनिश्चित करना है। जब कोई व्यक्ति ऐसी हरकत करता है, तो संस्थागत गरिमा प्रभावित होती है और जनता का न्याय प्रणाली में विश्वास डगमगा सकता है।

समाज जिसमें बदलाव की मांग होती है — चाहे वह धार्मिक अस्मिताओं के संबंध में हो, सामाजिक न्याय के संबंध में हो या अभिव्यक्ति की आज़ादी के संबंध में — उसे अक्सर ऐसे रुझानों और भाग-दौड़ का सामना करना पड़ता है जहाँ लोग आक्रोश में ऐसे कदम उठाते हैं जो सामाजिक और कानूनी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं होते। यह प्रतिरोध, कभी-कभी हिंसक भावनात्मक प्रतिक्रिया से होता है।

जब सार्वजनिक हस्तियाँ और राजनीतिक नेता इस तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते हैं, तो यह दिशा निर्धारित करती है कि समाज किस तरह इस तरह की चुनौतियों को देखकर आगे बढ़ेगा। अगर इन प्रतिक्रियाओं में संयम, न्यायपालिका के प्रति सम्मान, और संवाद की भावना हो, तो समाज में शांति बनी रह सकती है; अगर प्रतिक्रिया कटुता और द्वंद्ववाची भाषा की हो, तो विभाजन गहरा हो सकता है।

यह घटना हमें यह याद दिलाती है कि सामाजिक परिवर्तन की राह आसान नहीं होती है। वह रास्ता तनाव, विवाद, कट्टरता और कभी-कभी अशांति से भरा होता है। लेकिन यही बदलाव की प्रक्रिया का एक हिस्सा है — जब मान्यताएँ, विचार, भावनाएँ टकराती हैं और समाज यह निर्णय लेता है कि किन मूल्यों को बनाए रखना है, किन्हें संशोधित करना है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, अभिव्यक्ति की आज़ादी और धार्मिक भावनाओं की संवेदनशीलता — यह सब ऐसे मूल्य हैं जिन पर सवाल उठते हैं जब कोई टिप्पणी या घटना सार्वजनिक रूप से विवादित होती है। हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि वैध आलोचना और भावनात्मक प्रतिक्रिया के बीच विभाजन कैसे हो, और समाज अधिक सहिष्णुता और संवाद की ओर कैसे बढ़ सके।

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