INDC Network : पटना, बिहार : बिहार में दलित राजनीति में नए समीकरण: चंद्रशेखर की एंट्री से पासवान-मांझी-मायावती की चुनौतियां बढ़ीं
भीम आर्मी प्रमुख की एंट्री से दलित वोटों का बिखराव या एकजुटता, बदल सकती है बिहार की सियासत
बिहार की राजनीति में दलित वोटों का महत्व हमेशा से रहा है, लेकिन 2025 के चुनावों में इसकी दिशा बदल सकती है। इस बदलाव के केंद्र में हैं भीम आर्मी के प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद। जब से उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने का ऐलान किया है, दलित राजनीति के पारंपरिक समीकरणों में हलचल मच गई है।
बिहार की कुल आबादी में दलित (अनुसूचित जाति) समुदाय की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है, जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा रविदास (31%) और पासवान/दुसाध (30%) समाज का है। इसके अलावा मुसहर (14%), धोबी, कोरी, चमार जैसी जातियां भी इस समूह का हिस्सा हैं।
चंद्रशेखर की आक्रामक और संघर्षशील छवि का असर
चंद्रशेखर आजाद ने बीते कुछ वर्षों में उत्तर भारत की दलित राजनीति में खुद को एक आक्रामक, मुखर और संघर्षशील युवा नेता के तौर पर स्थापित किया है। उत्तर प्रदेश में वे मायावती के विकल्प के तौर पर उभरे, और अब उनकी नजर बिहार के सीमांचल और दलित बहुल इलाकों पर है।
उनकी एंट्री उस समय हो रही है जब रामविलास पासवान का निधन हो चुका है, उनकी पार्टी लोजपा (रामविलास) दो हिस्सों में बंट चुकी है और जीतन राम मांझी की राजनीतिक पकड़ कमजोर हो रही है।
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मायावती, मांझी और चिराग को चुनौती
दलित राजनीति के पारंपरिक चेहरे—रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और मायावती—अब चंद्रशेखर की मौजूदगी से दबाव में आ सकते हैं।
- चिराग पासवान अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन लोजपा की आंतरिक टूट-फूट ने उनकी पकड़ कमजोर की है।
- मांझी, जो पहले मुख्यमंत्री रह चुके हैं, अब सीमित प्रभाव रखते हैं और केवल एनडीए में अपनी उपयोगिता बनाए रखने में लगे हैं।
- मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) सीमित क्षेत्रों में प्रभावशाली है, विशेषकर उत्तर प्रदेश से सटे बिहार के जिलों में।
हरीश एस वानखेड़े, जो जेएनयू में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर हैं, अपने लेख में लिखते हैं कि बिहार में दलित मतदाता बिखरे हुए हैं और उन्हें संगठित करने वाला नेतृत्व फिलहाल कमजोर है। ऐसे में चंद्रशेखर यदि प्रयास करें तो वे इस बिखराव को एकजुटता में बदल सकते हैं।
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यूपी से सटे इलाकों में BSP का प्रभाव, लेकिन अब चुनौती में चंद्रशेखर
बीएसपी का प्रभाव बिहार के सीमांचल में—कैमूर, बक्सर, रोहतास, चैनपुर, मोहनिया, रामपुर आदि सीटों पर—महसूस किया जाता रहा है। हालांकि 2020 में BSP ने सिर्फ एक सीट जीती थी और उसके एकमात्र विधायक जमा खान बाद में जेडीयू में शामिल हो गए।
2020 में मायावती ने ओवैसी के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (GDSF) बनाया था, लेकिन परिणाम निराशाजनक रहे। इस चुनावी विफलता के बाद अब BSP ने साफ कर दिया है कि वह न NDA में जाएगी और न INDIA गठबंधन में, बल्कि अकेले चुनाव लड़ेगी।
इस स्थितियों में चंद्रशेखर आजाद मायावती के विकल्प के रूप में उभर सकते हैं, खासकर युवा दलित मतदाताओं के बीच, जो अधिक मुखर और सामाजिक न्याय की मांग को लेकर सक्रिय हैं।
क्या बन सकता है चंद्रशेखर दलित-मुस्लिम गठजोड़ का चेहरा?
बिहार में दलित और मुस्लिम मिलकर एक बड़ा वोट बैंक बनाते हैं। यदि चंद्रशेखर इन दोनों वर्गों को जोड़ने में सफल रहते हैं, तो वे राजद, कांग्रेस और जेडीयू जैसी पार्टियों को भी कड़ी चुनौती दे सकते हैं, जो अब तक दलित वोटों को अपनी परंपरागत राजनीति से साधती रही हैं।
AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी के पास आज सिर्फ एक विधायक बचा है—अख्तरूल ईमान, जो सीमांचल क्षेत्र में सक्रिय हैं। अगर ओवैसी और चंद्रशेखर साथ आते हैं, तो बिहार में एक नया दलित-मुस्लिम गठबंधन बन सकता है, जो परंपरागत राजनीति को तोड़ सकता है।
दलित सीटों पर निर्णायक हो सकते हैं समीकरण
बिहार में 38 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। वर्तमान में इसमें से एनडीए के पास 21 और महागठबंधन के पास 17 सीटें हैं। यदि चंद्रशेखर इन सीटों पर अपना प्रभाव डालते हैं, तो वे ना केवल मौजूदा गठबंधनों को नुकसान पहुंचा सकते हैं बल्कि कुछ जगहों पर किंगमेकर की भूमिका भी निभा सकते हैं।
चंद्रशेखर की एंट्री से सियासत में हलचल
बिहार की दलित राजनीति लंबे समय से सामाजिक न्याय के नारे और जातीय समीकरणों पर टिकी रही है। लेकिन अब चंद्रशेखर आजाद की एंट्री इस परिदृश्य को बदलने की ओर इशारा कर रही है। वे दलित युवाओं में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं और यदि संगठनात्मक स्तर पर वे मजबूत तैयारी करें, तो वे 2025 के चुनावों में एक बड़ी ताकत बन सकते हैं।



















