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फूलन देवी: बीहड़ से संसद तक – एक अन्याय के खिलाफ विद्रोह की जीवंत गाथा

INDC Network : जीवन परिचय : 25 जुलाई, भारतीय राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में एक ऐसा दिन है जो न केवल एक महिला की नृशंस हत्या की याद दिलाता है, बल्कि उस साहस, संघर्ष और शक्ति की भी जो उसने अपने जीवन में दर्शाया। फूलन देवी—एक नाम, जो भारत के वंचित समाज, विशेष रूप से महिलाओं और जातिगत भेदभाव से जूझ रहे लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया। 2001 में इसी दिन उन्हें दिल्ली के अशोक रोड स्थित उनके सरकारी आवास के बाहर गोलियों से भून दिया गया, जब देश की संसद का मानसून सत्र चल रहा था। उनके जीवन की कहानी जितनी प्रेरणादायक है, उतनी ही पीड़ा और संघर्ष से भी भरी हुई है।


एक नाजुक शुरुआत: गरीबी, जाति और लिंग का त्रिकोण

फूलन देवी का जन्म 10 अगस्त 1963 को उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के एक छोटे से गांव घूरा का पुरवा (अब मल्लपुरवा) में निषाद समुदाय के एक गरीब परिवार में हुआ। यह समुदाय पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने, नाव चलाने और बालू निकालने जैसे कार्यों में लगा रहता है। लेकिन फूलन का परिवार इतना निर्धन था कि उनके पास अपनी नाव तक नहीं थी। उनके पिता एक साधारण बढ़ई थे।

बाल्यावस्था में ही उन्हें पारिवारिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। उनकी किशोरावस्था में ही उनका विवाह एक उम्रदराज व्यक्ति से कर दिया गया, जिससे उन्हें शारीरिक और मानसिक पीड़ा मिली। वह घर से भाग आईं, परंतु समाज और व्यवस्था ने उन्हें हर बार धोखा ही दिया।


डाकू नहीं, परिस्थितियों की उपज

उनकी जिंदगी ने एक और बड़ा मोड़ तब लिया जब वे बीहड़ के कुख्यात क्षेत्र चंबल में डाकुओं के एक गिरोह के संपर्क में आईं। उन्होंने विक्रम मल्लाह नामक डाकू के साथ संबंध बनाए, जो उनके प्रति अपेक्षाकृत सम्मानजनक व्यवहार करता था। परंतु विक्रम की हत्या के बाद, गिरोह के अन्य सदस्यों द्वारा उनके साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना ने फूलन के जीवन को पूरी तरह बदल दिया।

यहां से एक साधारण ग्रामीण लड़की ने विद्रोह का रूप धारण किया। फूलन देवी ने उन अत्याचारियों से बदला लेने की ठान ली। वर्ष 1981 में उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात स्थित बेहमई गांव में, उन्होंने उन ठाकुरों की हत्या कर दी जिन्होंने उनके साथ बलात्कार किया था। इस घटना ने देश भर में हड़कंप मचा दिया।


दो फाड़ समाज: हत्यारिन या मुक्तिदाता?

बेहमई हत्याकांड के बाद फूलन देवी की छवि समाज में दो रूपों में सामने आई—एक ओर वे एक क्रूर हत्यारिन के रूप में देखी गईं, वहीं दूसरी ओर वे उत्पीड़ितों की मसीहा बनकर उभरीं।

हिंदी समाचार पत्रों, टेलीविजन रिपोर्ट्स और साहित्यिक लेखों में उनके लिए शब्दों की सीमाएं टूट गईं। उन पर लिखे गए उपन्यास, कविताएं और विशेष रूप से शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। यह फिल्म न केवल उनके जीवन की त्रासदी और अन्याय को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे एक स्त्री अपनी पीड़ा को विद्रोह में बदल सकती है।


आत्मसमर्पण और पुनर्जन्म

17 फरवरी 1983 को फूलन देवी ने मध्य प्रदेश के भिंड जिले में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के समक्ष आत्मसमर्पण किया। आत्मसमर्पण से पहले उन्होंने महात्मा गांधी और मां दुर्गा की तस्वीरों के सामने सिर झुकाया। यह प्रतीकात्मकता बताती है कि वह केवल हथियार डालने नहीं आई थीं, बल्कि समाज को यह दिखाने आई थीं कि उत्पीड़न के विरुद्ध विद्रोह भी एक नैतिक कदम हो सकता है।

फूलन ने लगभग 11 वर्ष जेल में बिताए और 1994 में रिहा हुईं।


संसद में निषाद कन्या

1996 में समाजवादी पार्टी ने उन्हें मिर्जापुर से लोकसभा टिकट दिया और वे सांसद चुनी गईं। 1998 में पराजय मिली लेकिन 1999 में फिर से वे लोकसभा पहुंचीं।

एक वंचित, दलित, महिला और पूर्व डाकू—इन चारों परतों को लांघते हुए फूलन देवी ने जब भारतीय संसद में कदम रखा, तो वह घटना भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक मानी गई।


राजनैतिक प्रतीक में बदलती महिला

फूलन देवी की उपस्थिति मात्र ने दलितों, विशेषकर निषाद समुदाय को आत्मगौरव का एहसास कराया। निषाद समुदाय, जो वेदव्यास, निषादराज, और एकलव्य जैसी ऐतिहासिक विरासत को अपने भीतर समेटे हुए है, फूलन को अपनी समकालीन प्रेरणा मानता है।

उनका राजनीतिक अस्तित्व केवल एक सांसद भर होना नहीं था, बल्कि वे एक ऐसे समाज की प्रतिनिधि बन चुकी थीं, जो सदियों से वंचना, हिंसा और हाशिए पर रहने को विवश था।


फूलन देवी की हत्या: बंदूकें खामोश नहीं कर सकीं आवाजें

25 जुलाई 2001 को दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास पर उन्हें शेर सिंह राणा ने गोली मार दी। हत्या के पीछे की राजनीति, जातीय भावना और बदले की भावना आज भी सवालों के घेरे में है।

इस निर्मम हत्या ने समाज को झकझोर दिया और एक बार फिर फूलन को केंद्र में ला खड़ा किया। उनकी मृत्यु के बाद समाज के बड़े हिस्से में उनके प्रति करुणा, आदर और श्रद्धा का भाव और अधिक गहरा हुआ।


ग्रामीण भारत की फूलन

2010 के बाद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई जिलों—जैसे बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर, महोबा, इलाहाबाद, कानपुर देहात, गोंडा, और सुल्तानपुर—में हुए फील्डवर्क से यह साफ हुआ है कि फूलन देवी आज भी ग्रामीण जनमानस में जीवित हैं।

निषाद समुदाय की महिलाओं के लिए वे शक्ति, संघर्ष और आत्मसम्मान का नाम बन चुकी हैं। वे बहुजन महिलाओं के लिए एक आदर्श बन चुकी हैं, जो न केवल सामाजिक अन्याय का सामना कर रही हैं, बल्कि उससे ऊपर उठकर नेतृत्व की भूमिका में भी आना चाहती हैं।


डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का विस्तार

फूलन देवी का जीवन और संघर्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर के ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो’ के मूल मंत्र को साकार करता है।

उनका व्यक्तित्व न केवल सामाजिक विद्रोह का प्रतीक बनता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि दलित और बहुजन महिलाएं भी नेतृत्व में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं।


निषाद राजनीति में फूलन देवी की प्रासंगिकता

आज उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में निषाद समुदाय एक संगठित शक्ति के रूप में उभर चुका है। निषाद पार्टी, विकासशील इंसान पार्टी (VIP), और समाजवादी पार्टी जैसे दल फूलन देवी के नाम और प्रतीक को चुनावी अभियानों में प्रमुखता से इस्तेमाल करते हैं।

हर साल 25 जुलाई को फूलन देवी की पुण्यतिथि को ‘अन्याय विरोधी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जो यह दर्शाता है कि उनके संघर्ष और बलिदान को भुलाया नहीं गया है।


फूलन देवी केवल एक व्यक्ति नहीं थीं। वे एक विचार थीं—एक ऐसी सोच जो कहती है कि वंचना और अपमान के विरुद्ध आवाज उठाना न केवल संभव है, बल्कि आवश्यक भी है। वे एक बहुजन, दलित, स्त्री, ग्रामीण और राजनीतिक चेतना का मेल थीं।

उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि हर हाशिये से उठी आवाज अगर दिशा पाए तो वह संसद की गूंज बन सकती है। फूलन देवी ने बीहड़ से संसद तक की यात्रा न केवल अपने लिए की, बल्कि उन लाखों-करोड़ों महिलाओं, दलितों और वंचितों के लिए की, जो अब भी किसी फूलन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

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