INDC Network : वाराणसी, उत्तर प्रदेश : वाराणसी से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर, चौबेपुर क्षेत्र के गंगा तट पर बलुआ पत्थर से निर्मित एक दुर्लभ मूर्ति मिलने के बाद पुरातत्व जगत में हलचल मच गई है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे को यह प्रतिमा तब मिली जब वे अपने गांव के पास एक ग्रामीण क्षेत्र में मौजूद थे। प्रारंभिक तौर पर इसे “एकमुखी शिवलिंग” बताया गया, लेकिन इस पर अब बड़ा विवाद खड़ा हो गया है, क्योंकि कई विशेषज्ञ इसे बुद्ध की प्रतिमा मान रहे हैं।
बलुआ पत्थर से बनी इस मूर्ति पर भगवान शिव की तरह शांत मुखाकृति, जटामुकुट और गोल कुंडल उकेरे गए हैं। इसके बावजूद कुछ विद्वानों का कहना है कि यह मूर्ति शैव नहीं, बल्कि बौद्ध परंपरा से जुड़ी है। इस पर बुद्ध के लम्बे कान, सौम्य भाव और सूक्ष्म नक्काशी स्पष्ट झलकती है — जो अवलोकितेश्वर बोधिसत्व बुद्ध की विशेषता मानी जाती है।
इतिहास और कला के दृष्टिकोण से
बीएचयू के प्रमुख पुरातत्वविद डॉ. सचिन तिवारी, डॉ. राकेश तिवारी और प्रो. वसंत शिंदे ने इस मूर्ति का अध्ययन कर इसे गुर्जर–प्रतिहार काल (9वीं–10वीं सदी ईस्वी) का बताया है। उनके अनुसार, यह मूर्ति काशी–सारनाथ कला परंपरा से प्रभावित है और इसमें स्थानीय शिल्पियों की निपुणता झलकती है।
हालांकि बौद्ध इतिहासकारों का कहना है कि यह क्षेत्र मूल रूप से बुद्ध की भूमि रहा है। सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में वाराणसी–सारनाथ क्षेत्र में अनेक स्तूप और प्रतिमाएँ स्थापित करवाई थीं। बलुआ पत्थर से मूर्तियाँ बनाने की परंपरा भी अशोक के काल में ही प्रारंभ हुई थी, जब चुणार के लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग बुद्ध स्तंभों और सिंह प्रतिमाओं के लिए किया गया था।
बलुआ पत्थर और मूर्तिकला की परंपरा
भारत में बलुआ पत्थर का प्रयोग मूर्तिकला में मौर्य काल (322–185 ई.पू.) से आरंभ हुआ। अशोक काल में सारनाथ, वैशाली और लौरिया नंदनगढ़ के अशोक स्तंभ इसी पत्थर से बने थे। बाद में शुंग, कुषाण और मथुरा कला शैली में भी इस पत्थर का उपयोग व्यापक हुआ।
बलुआ पत्थर की विशेषता यह रही कि यह मुलायम और टिकाऊ होता है — जिससे मूर्तियों पर महीन नक्काशी संभव हो पाती है। उत्तर भारत, विशेषकर वाराणसी और मध्य प्रदेश क्षेत्र में इसकी उपलब्धता ने इसे मूर्तिकला की प्रमुख सामग्री बना दिया।
विवाद का केंद्र: शिव या बुद्ध?
मूर्ति के लंबे कान और चेहरे की सौम्यता को देखते हुए कई बौद्ध विद्वानों का कहना है कि इसे “एकमुखी शिवलिंग” कहना ऐतिहासिक भूल है। उनका तर्क है कि यह अवलोकितेश्वर बोधिसत्व की प्रतिमा है, जिसे गलत ढंग से शैव प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह क्षेत्र समृद्ध बौद्ध केंद्र रहा था और आज भी है।
यहाँ से पहले भी फर्रुखाबाद के कम्पिल क्षेत्र में बुद्ध की “नागमूलचिंद” मूर्ति मिली थी, जो इसी सांस्कृतिक श्रृंखला का हिस्सा बताई जाती है।

















